Hale Gham Apna Bhala Kisko Sunaya Jaaye.
हाले ग़म अपना भला किसको सुनाया जाए।
हाले ग़म अपना भला किसको सुनाया जाए,
कौन दुश्मन है यहाँ किसको रुलाया जाए ,
आये मय्यत पे तो इस तरह से फरमाने लगे,
रूठने वाले को किस तरह मनाया जाए।
हर्मोदहर का यूँ झगड़ा मिटाया जाए ,
बीच में दोनों के मैखाना बनाया जाए।
क्यूंकि इसी हिंदुस्तान में एक धनवान रहता था,
ना हिन्दू था,ना मुस्लिम था,फ़क़त इंसान रहता था,
ये दिल में सोचा उसने ऐसा कोई काम कर जाएँ,
जहाँ करने वाले करें तारीफ ऐसा नाम कर जाएँ।
करें वो काम के हिन्दू-मुसल्मा एक हो जाएं,
जो हैं भटके हुए रस्ते वो सब नेक हो जाएं,
जहाँ हिन्दू करे पूजा,जहाँ मुस्लिम करे सजदा,
दिखाएँ एक जगह पे रहीमो-राम का जलवा।
ये दिल में सोच कर बनवाया आलिशान एक मंदिर,
हुई तामीर तो एलान उसने कर दिया घर-घर,
के हिन्दू भी यहाँ आएं,मुसल्मा भी यहाँ आएं,
कोई सजदा करे आकर कोई माला चड़ा जाए,
मगर कुछ रोज़ बाद आया तो देखा उस जगह मंज़र,
के मंदिर के सहन में चंद हिन्दू बैठे थे मिलकर,
बुला कर एक पुजारी से ये मंज़र देख कर पूछा,
मुसल्मा क्यूँ नहीं आते हैं करने इस जगह सजदा?
पुजारी ने कहा मुस्लिम यहाँ किस तरह आएँगे,
वो सब मस्जिद में जाकर ही अपना सर झुकाएँगे।
ज़मीं की गोद नूरे किब्रियाँ से भर दी,
मुसल्मा भी यहाँ आएं और किस्मत को जगा जाएं,
अगर हिन्दू भी आना चाहे तो वो भी शौक से आएं,
दिखादें दोनों भाई-भाई मिलकर ये ज़माने को,
मोहब्बत से करें रंगीन मोहब्बत के फ़साने को।
ये एलान करके अपने दिल में वो मसरूर था इन्सां,
के मेरे कारनामे पर ज़माना होएगा हैरां।
मगर कुछ रोज़ बाद आया तो मस्जिद पर नज़र डाली,
हुआ हैरान जब देखा नज़र आयी थी वो ख़ाली ,
के मस्जिद के सहन में चंद ही दीनदार बैठे थे,
जिन्हें मौला से अपने है बहुत ही प्यार बैठे थे।
बुलाकर एक मुस्लमान से कहा मुझको बताओ तुम,
कोई हिन्दू यहाँ आये नहीं क्यूँ कर बताओ तुम,
मुसल्मा ने कहा हिन्दू यहाँ किस तरह आएँगे,
नहीं है मूरत इसमें जिन्हें माला चढ़ाएंगे,
हुआ हैरान अपने दिल में उठकर चल दिया घर को,
के कोशिश हो गई सब रायगाँ धुनता हुआ सर को।
हुआ तरफ़ा तमाशा कुछ दिनों के बाद कुछ ऐसा,
अजब सिबका हुआ जारी जो आलम के वहां देखा,
जगह मस्जिद के और मंदिर के थी बीच में ख़ाली,
वहां पर एक शराबी ने बसी भट्टी बना डाली।
ना डुग्गी पिटवाई न ही एलान करवाया,
बनाई झोपड़ी उसको न आलिशान बनवाया,
मगर दो-चार दिन में लगी एक भीड़ सी उस जां,
ये मंज़र देखने वालो ने जो-जो आँखों से देखा है,
चले आते हैं दाड़ी वाले भी और चोटी वाले भी,
जमा एक जां पे हुए हैं धोती वाले लुंगी वाले भी,
न हिन्दू और मुसल्मा में कोई फर्क नज़र आया,
बस एक खंजर था दोनों की रगें जां पर नज़र आया।
मुसल्मा हिन्दू को हिन्दू मुसल्मा को पिलाते थे,
प्याले से प्याला और दिल से दिल मिलते थे।
ये मिल्लत और मोहब्बत देखकर हैरां हुआ बैठा,
समझ में आ गया 'अनवर'मुझे इस फ़साने का,
के हर्मोदहर का यूँ झगड़ा मिटाया जाए,
बीच में दोनों के मैखाना बनाया जाए।
नोट: ये ग़ज़ल किसी 'अनवर ' नाम के शायर ने लिखी है जो मैंने एक पुरानी डायरी में लिखी पाई दिनाक 29/1/1977 में। अगर आप असली शायर को जानतें हों तो ज़रूर बताएं।
Comments
Post a Comment